क्यों करते हो कोशिश तुम,
खुद को अलग
बताने की?
और मज़हब की खातिर,
इंसानियत को बटवाने की?
कुछ भी कर लो, कुछ भी कह लो,
इस तथ्य से तुम, बच नहीं पाओगे,
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (1)
चाहे काले वेश मे आओ,
या फिर गेरुए मे रंग जाओ,
रूप कोई अपना धर लो तुम,
हवा, पानी और मिट्टी एक ही पाओगे।
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (2)
चाहे माथे तिलक लगा लो,
या फिर सर पर ताज सजा लो,
सुख दुःख एक समान जीवन में,
एक समान, तुम पाओगे।
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (3)
चाहे वेदों को तुम गालो,
या फिर आयतों को रट डालो,
तोड़ कैद इस देह की तुम,
एक जगह पर ही जाओगे।
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (4)
चाहे दीदार चाँद का पालो,
या फिर अर्घ्य सूर्य को डालो,
दोनों से ही जीवन किरणें,
एक समान ही तुम पाओगे।
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (5)
चाहे हरे का मान बढ़ाओ,
या फिर गेरुए पर इतराओ,
रंग रक्त का, कभी भी,
तुम बदल नहीं पाओगे।
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (6)
भेद नहीं करती बीमारी तुममे,
और नहीं महामारी तुममे,
दवा भी हर इंसान की खातिर,
तुम एक ही पाओगे।
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (7)
भेद नहीं करते हैं जल मे रहने वाले,
और इस धरा पर चलने वाले,
गगन मे उड़ने वालों के लिए,
तुम एक ही समझे जाओगे,
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (8)
भेद नहीं करती अग्नि तुममे,
आंच देती और खाना पकाती है।
कोई भी हो तुम, इसके रूप को
तुम एक समान ही पाओगे।
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (9)
खुद मे भेद करो, इससे पहले
इतना तो सोच लिया होता,
गर तुम्हें जो अलग बना सकता,
क्या औरों (प्राणियों) के लिए तुम उसे असमर्थ पाओगे?
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (9)
मामूली होकर भी तुम,
घर अलग दे सकते हो संतानों को,
अलग धरा अपनी संतानों को,
देने मे, क्या तुम उसे असमर्थ पाओगे?
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (10)
इक सूरज और चाँद बना
सकता था जो,
इक और भी शायद बना देता,
लेकिन उसकी मंसा को शायद,
तुम नहीं समझ पाओगे,
खुद को छोड़, सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (11)