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Wednesday, November 22, 2023

सीख लीजिये

कब तक भटकते रहोगे, सुकून की तलाश मे,

अपने ही दिल मे शायर, इसे पाना सीख लीजिये।

 

कहते हैं मंजिल सफर है मुश्किलों का,

राह मे इसके कदम बढ़ाना सीख लीजिये।

 

रूठ जाते है जो रिश्ते तुम्हारे तरीकों से,

उन रिश्तों को अब, मनाना सीख लीजिये।

 

देर हो जाती है अक्सर तुम्हें घर पर आने मे,

इंतज़ार करती आँखों को, हंसाना सीख लीजिये।

 

हो जाती हैं ग़लतियाँ अपनो से कभी कभी,

माफ कर उन्हे गले से, लगाना सीख लीजिये।  

 

जरूरी नहीं हर बात मे, तुम्हारा जिक्र हो,

औरों के हुनर को साहब, अपनाना सीख लीजिये।

Monday, November 20, 2023

हार का ग़म

 इस तरह हार का ग़म मनाया नहीं करते,

खुशी के लम्हों को, यूं भुलाया नहीं करते।

 

माना कोशिशें बेकार हो गई हैं इस बार,

अपने हौसलों को, यूं गिराया नहीं करते।

 

माना कि चाहत थी चाँद छूने के तुम्हें,

मुट्ठी मे आए तारों को, यूं गिराया नहीं करते।

 

ग़म और खुशी के लिए, बरसते हैं ये आँखों से,  

हार और जीत मे ये आँसू, यूं बहाया नहीं करते।

 

जरूरी है अपने गिरेबान मे झांकना,

खुद को मयूसियों मे मगर, दफनाया नहीं करते।

 

पढ़ सकते हैं हम, तुम्हारे चेहरों कि दास्तां,

अश्क लेकर इन आंखो मे, औरों को रुलाया नहीं करते।   

Saturday, October 7, 2023

अबला नहीं, नारी शक्ति हूँ मैं

मान दिया तो घर को
स्वर्ग बना दूँ,
नहीं तो इसे नर्क मे,
बदल सकती हूँ मैं,
क्योंकि अबला नहीं, नारी शक्ति हूँ मैं।
 
चाहूँ तो, फूलों की सेज
सजा दूँ ,
या फिर इन्हे अंगारों मे,
बदल सकती हूँ मैं।
क्योंकि अबला नहीं, नारी शक्ति हूँ मैं।
 
चाहूँ तो तुम्हें सर
पर बैठा लूँ,
या फिर तिनके की भांति,
मसल सकती हूँ मैं।
क्योंकि अबला नहीं, नारी शक्ति हूँ मैं।
चाहूँ तो “ऐश्वर्या” के रूप,
मे आकर लुभाऊँ,
पर याद रहे, “फूलन” भी
बन सकती हूँ मैं,
क्योंकि अबला नहीं, नारी शक्ति हूँ मैं।
 
चाहूँ  तो “संतोषी” बन
वर दे जाऊँ तुम्हें,
या संहार के लिए,
“दुर्गा” बन सकती हूँ मैं।
क्योंकि अबला नहीं, नारी शक्ति हूँ मैं।
 
चाहूँ तो “लता” बन कर,
मन पुलकित कर दूँ,
या थर्राए गर्जना से जिसके,
वो “काली” भी बन सकती हूँ मैं
क्योंकि अबला नहीं, नारी शक्ति हूँ मैं।

Monday, July 10, 2023

इंसान ही कहलाओगे

क्यों करते हो कोशिश तुम,

खुद को अलग बताने की?
और मज़हब की खातिर,
इंसानियत को बटवाने की?


कुछ भी कर लोकुछ भी कह लो,
इस तथ्य से तुमबच नहीं पाओगे,  
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (1)
 
चाहे काले वेश मे आओ,
या फिर गेरुए मे रंग जाओ,
रूप कोई अपना धर लो तुम,
हवापानी और मिट्टी एक ही पाओगे।
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (2)
 
चाहे माथे तिलक लगा लो,
या फिर सर पर ताज सजा लो,
सुख दुःख एक समान जीवन में
एक समान
तुम पाओगे।
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (3)
 
 
चाहे वेदों को तुम गालो,
या फिर आयतों को रट डालो,
तोड़ कैद इस देह की तुम,
एक जगह पर ही जाओगे।
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (4)
 
चाहे दीदार चाँद का पालो,
या फिर अर्घ्य सूर्य को डालो,
दोनों से ही जीवन किरणें,
एक समान ही तुम पाओगे। 
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (5)
 
चाहे हरे का मान बढ़ाओ,
या फिर गेरुए पर इतराओ,
रंग रक्त काकभी भी,
तुम बदल नहीं पाओगे।
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (6)
 
भेद नहीं करती बीमारी तुममे,
और नहीं महामारी तुममे,
दवा भी हर इंसान की खातिर,
तुम एक ही पाओगे।   
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (7)
 
भेद नहीं करते हैं जल मे रहने वाले,
और इस धरा पर चलने वाले,
गगन मे उड़ने वालों के लिए,
तुम एक ही समझे जाओगे,
खुद को छोड़सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (8)
 
भेद नहीं करती अग्नि तुममे,
आंच देती और खाना पकाती है।
कोई भी हो तुम
इसके रूप को
तुम एक समान ही पाओगे।
खुद को छोड़
सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (9)
 
खुद मे भेद करोइससे पहले
इतना तो सोच लिया होता
,
गर तुम्हें जो अलग बना सकता,
क्या औरों (प्राणियों) के लिए तुम उसे असमर्थ पाओगे?
खुद को छोड़सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (9)
 
मामूली होकर भी तुम,
घर अलग दे सकते हो संतानों को,
अलग धरा अपनी संतानों को,
देने मेक्या तुम उसे असमर्थ पाओगे?
खुद को छोड़सारे जहाँ के लिए,
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (10)
 
इक सूरज और चाँद बना
सकता था जो
,
इक और भी शायद  बना देता,
लेकिन उसकी मंसा को शायद,
तुम नहीं समझ पाओगे,
खुद को छोड़सारे जहाँ के लिए
तुम “इंसान” ही कहलाओगे। (11)